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प्रेम- परिभाषा से पार

  • Writer: Shivam Soni
    Shivam Soni
  • May 23, 2024
  • 6 min read

Updated: May 27, 2024

आज कुछ अलग विषय पर चर्चा करेंगे - कुछ ऐसा जो हमारे सभी के जीवन में बहुत ही आसानी से समय हुआ है, लेकिन क्या सिर्फ समाया होना काफी है या हमारी उसके प्रति कुछ जिम्मेदारियां भी है ?


बात करेंगे प्रेम की | क्या है प्रेम? क्या सिर्फ उसे एक परिभाषा में बंद कर रखा जा सकता है? या फिर यह भी अनंत ,अनादि और हम सबका अपना स्वरूप है ?

चलिए मैं आपसे एक पल के लिए ठहरने का अनुरोध करूंगा। जरा आप सोचिए की प्रेम क्या है ? थोड़ा रुके होंगे न, थोड़ा झिझके होंगे ना। झिझक स्वाभाविक है। हमारे जीवन के कई ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सोचते तक नहीं, लेकिन वह हमारे जीवन के एक अभिन्न अंग है। अब आप अपने दूरभाष यंत्र में उपयोग होने वाले यूपीआई को ही ले लीजिए। 2016 में सब ने कभी नहीं सोचा होगा कि एक आम सब्जी वाला , एक दिहाड़ी मजदूर या एक बस कंडक्टर , यह सभी अपने फोन से राशि का लेनदेन कर रहे होंगे। यहां तक भी ठीक है। लेकिन, सिर्फ यहीं तक इसका जादू सीमित नहीं है। नवंबर 2023 के आंकड़ों के अनुसार ,भारत के कुछ 30 करोड़ नागरिक और 5 करोड़ विक्रेता यूपीआई का उपयोग कर रहे हैं। यह संख्या यूपीआई उपयोगकर्ताओं का अपना एक अलग देश बना सकती है और यह देश पृथ्वी का चौथा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होगा। इन 30 करोड़ और बढ़ती जनसंख्या का एक-एक रुपया कीमती है और हमारे देश के महान वैज्ञानिकों , नीति निर्माता और इंजीनियरों ने इसे इतना सरल, किंतु अतिशय सुरक्षित बनाया है। और तो और भारत पहला ऐसा देश है जो इतनी बड़ी जनसंख्या को यह उपयोग करने का मौका देता है। आप विदेश में जाइए , वहां लोग अभी भी नोटों की गड्डी लिए घूम रहे हैं।

खैर यह तो सिर्फ एक उदाहरण था, आपको जागरूक करने के लिए। जागरूकता इस बात की सोचिए क्या हो रहा है आसपास और क्यों हो रहा है ? कैसे हो रहा है ?


हां , तो हम कहां थे? परिभाषा - प्रेम क्या है? मैं आपको एक सटीक उत्तर नहीं दे पाऊंगा, परंतु आपको सोचने पर मजबूर करुंगा कि आपके जीवन में कौन सा प्रेम सही बैठता है?


प्रेम तो मनुष्य को अपने अर्थ /धन से भी होता है। वह उसे सहेज कर रखना चाहता है । क्या यह प्रेम अलग है उन चीजों के प्रेम से जो आपके बचपन की साथी थी और आप भले ही उनके दर्शन साल में एक बार करें पर करें , पर जब कबाड़ वाले को दी जाती है , तब जरूर आपको चोट पहुंची है ? क्या आप इसे प्रेम नहीं कहेंगे ? चलिए मैं आपके सामने कुछ और उदाहरण देता हूं।



क्या हम उसे प्रेम कह सकते हैं जो एक पुत्र को अचानक एक दिन कच्ची उम्र पार करके किसी गहरी सोच के दौरान समझ आता है कि वह अपने पिता या माता की एक छवि है? आप सोचिए कि वह पुत्र अपने पिता की कोई आदत से कभी-कभी परेशान सा रहता है। मान लीजिए कि वह कार चला रहा है और उसके पिता उसे बार-बार कार चलने पर टोकते जरूर हैं। भले ही उसे कार चलते हुए 5 या 10 साल ही हो चुके हो। एक दिन अकेले जब उसके पिता उसके बाजू में कार में नहीं बैठे हैं। वह यूं ही कार चला रहा होता है और सोचता है कि यह भी तो एक तरीके से उसी समान है जैसा कि वह अपने काम के दौरान करता है। उसे अपना काम किसी और को देना पसंद नहीं आता और वह खुद उसे चीज को करना चाहता है। वैसे ही उसके पिता जो शायद 20 या 30 साल से गाड़ी चला रहे हैं, वह हो सकता है कि यह सोचते हो कि उनके जैसी निपुणता अभी उनके पुत्र में नहीं आई है। जो स्वाभाविक है । तो शायद यह एक सोचने के लिए उसे पहलू देता है और मैं इसे भी प्रेम कहना चाहूंगा। कि अपने पिता के प्रति सम्मान और उनके कार्यों, उनकी बातों के बीच या पीछे कोई ना कोई कारण होगा, यह समझ लेना ही प्रेम है।


पंडित ओम व्यास ओम की रचना - माता और पिता, कहती है:


"पिता जीवन है, संबल है, शक्ति है

पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है


पिता उंगली पकड़े बच्चे का सहारा है

पिता कभी कुछ खट्टा, कभी खारा है"



माता का अपनी संतान के प्रति भी प्रेम अलग ही है। जो उसके दूर होने पर, जो उसके मना करने पर भी अपनी ज़िद मनवा लेने में है। अपने नाम से कुछ चीज लेना और फिर अपने बच्चों को दे देना भी इसी प्रेम में आता है।


ओम व्यास जी की ही कविता याद आती है -


"माँ संवेदना है, भावना है, अहसास है माँ

माँ जीवन के फूलों में खाुशबू का वास है माँ


माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है माँ

माँ मरुथल में नदी या मीठा सा झरना है माँ"


प्रेम अपने मित्र से भी होता है। अलग प्रकार का प्रेम। जो उसके साथ मुश्किल घड़ियों में भी हसी के फुव्वारे छुड़वा सकता है। यह प्रेम ही है जो मित्रता को एक सर्वश्रेष्ठ गुण बनाता है। आप ही सोचिए, हमारे ग्रंथों में कई बार यह भाव आएं हैं जब परिवार आपके साथ नहीं खड़ा था लेकिन आपका मित्र आपके साथ ज़रूर था।

जब अर्जुन अपने ही भाइयों के विरुद्ध धर्म युद्ध करने की विडंबना में थे तब श्री कृष्ण ने ही अर्जुन को पार्थ कहकर वो संबोधन किया जिसका विश्व आज गुणगान करता है। इसी के साथ ही जब कर्ण को उसकी मां ने त्याग दिया था तब दुर्योधन ने उसे भाई से भी ऊपर स्थान दिया था। यही कारण रहा की वे धर्म के विरुद्ध भी जाने को तैयार थे, जब उन्हें अपने मित्र का साथ देना था। यह प्रेम नहीं है तो क्या है आप ही बताइए।


एक प्रेम हमें अपने जीवन संगी या प्रेमी/ प्रेमिका से भी होता है। यह भी मित्रता की तरह ज़रूरी नहीं है की एक ही बार हो। माना की इतिहास की कई गाथाएं इन्ही पर आधरित हैं की सच्चा प्रेम एक बार ही होता है, लेकिन क्या आपने सोचा भी की क्या वह प्रेम अधूरा नहीं रह गया?


यूं तो इश्क के सात मुकाम होते हैं -

1. दिलकशी (चाहत)

2. उंस (स्पंदन)

3. मोहब्बत (अनुराज)

4. अदीकत (श्रद्धा)

5. इबादत (उपासना)

6. जुनून (पागलपन)

7. और फिर मौत


लेकिन आप खुद सोचिए, चाहे राम-सिया हो या राधे कृष्ण, उनका प्रेम अधूरा ही रह गया। बाकी प्रेम कहानी जैसे रोमियो जूलियट या लैला मजनू ने तो उनको ज़िंदगी पूरी जीने से पहले ही सातवें मुकाम पर पहुंचा दिया। शायद इसलिए मैं तो कहूंगा की हमारे हिंदी के अध्यापक सही ही कहते थे ," प्यार नहीं है खेल बच्चों का, उसमे निकल जाता है तेल अच्छे अच्छों का"।

खैर हिंदी की बात हो ही रही है तो उसमे आपके एक और प्रेम को जोड़ लेते हैं। यह प्रेम है "हिंदी" शब्द को कैसे लिखतें हैं उससे। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है की हम "हिन्दी" लिखते हैं न की "हिंदी"। आप अगर बचपन से अभी तक अपनी जो भी हिंदी की किताब उठा कर देखेंगे तो पायेंगे की आपकी वर्तनी गलत थी शायद। भले ही वह मान्य जरूर हो, लेकिन यह आपका अपनी सीखी हुई चीज़ से प्रेम ही तो था जो आपको 12 साल तक (कम से कम) उस गलती को नज़र अंदाज़ करने पर मजबूर किया।

यह छोड़िए, हम प्रेमी/साथी से प्रेम की बात कर रहे थे। यह भी तो प्रेम ही हैं जो आपको नापसंद होने के बावजूद भी आप अपने साथी के लिए उन चीजों को करना चाहतें हैं। या यूं कहूं की करते हैं। आप अपनी बेइज्जती तक सह सकतें हैं अगर बात आपके प्रेम की हो। चाहे दुनिया आपको बदलना चाहे तब भी आप बदलना नहीं चाहते , लेकिन आप अपने प्रेमी के लिए पूरी दुनिया को बदल देने की क्षमता रखते हैं। प्रेम हमें अपने आप को उसे वक्त तक खींचने की क्षमता देता है ,जो हमने सोची तक नहीं थी। शायद नया-नया इस प्रकार के प्रेम को महसूस किया हूं। तो जरूर कहूंगा कि यह प्रेम भी एक अलग प्रकार का प्रेम है और इससे भागने की नहीं, अपितु इसको अपनाने की और इसे समझने की जरूरत जरूर है। यही प्रेम ही तो है जो कोई गीत सुनकर आपको किसी शख्स की याद दिलाता है।



जहां लगाव है, वहीं अलगाव है। तो प्रेमी संगिनी की बात हो और बिछड़न की ना हो ऐसा कैसे हो सकता है ! और बिछड़न का मतलब है दुख, दुख में हमें ईश्वर ही तो याद आते हैं । इसलिए लेख के अंत में मैं आपका आपके ईश्वर से प्रेम भी ज़ाहिर करना चाहूंगा। आपका अपने ईश्वर से यह प्रेम ही तो है जो उसके घर को पूजने और ईश्वर को सर्वज्ञ मानने में के लिए मजबूर करता है। जो आपके साथ आए दिन घटित हो रहा है वह अच्छा और बुरा सब ईश्वर की देन है। यह आपका उसके प्रति प्रेम ही तो है। और शायद अगर ईश्वर है, तो उनका आपको आज तक ज़िंदा रखना - क्या यह प्रेम नहीं है? नहीं तो कई जानलेवा बीमारियां चाहे तो दो दिन के मेहमान बना सकती हैं । उन्हें हमने 80 90 साल की उम्र तक जीते देखा है। यह ईश्वर का आपके प्रति प्रेम कहा जा सकता है।


मैं अक्सर यह पंक्तियां अपने मित्रों को कहता हूं और शायद यह आपको प्रेम की परिभाषा भी दे जाए इसलिए इसलिए इस लेख का अंत करते हुए दुष्यंत कुमार जी की कुछ पंक्तियां आपके लिए छोड़ जा रहा हूं -


"ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही


कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता


मैं बे-क़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए "




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